योद्धा की स्याही : व्यंग्य

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अनिल सक्सेनाanil-sexsena-anni “ अन्नी “  असल में हमें बचपन की यादों के साथ खेलने में बड़ा मज़ा आता है और इत्तिफ़ाक़ से आज फिर से इस सुखद अनुभूति को सहलाने का एक सुनहरा मौक़ा हमें हाथ लग गया। हुआ यूँ कि आज अख़बार में पढ़ा कि किसी शरारती योद्धा ने किसी नेता के मुखोटे पर स्याही का छिड़काव कर दिया है और इस शुभ कार्य को अंजाम तक पहुचाने के बाद राज़ी ख़ुशी ख़ुद को पिटाई के लिए समर्पित भी कर दिया। बस,फिर क्या था, इसे पढ़ते ही हम अपने फ़्लेश बैक में रवाना हो गये।

बचपन के फ़्लेश बैक में जो दृश्य सबसे पहले सामने आया उसे देखकर हमारे माथे पर पसीने की बूँदे चमकने लगीं। हाथ में बेंत लिये, रोबीले चेहरे के धनी मास्टर जी सामने खड़े थे। अपनी ख़ुद की हथेली पर होले होले छड़ी बजाते हुए उन्होंने हमसे पूछा कि क्यों बे आज फिर कलम घर पर भूल आया ? मास्साब की एक विशेषता यह थी की वो पहले छड़ी ठिकाने पर जमाते थे फिर जवाब सुनते थे। इसलिए हमने भी अपनी हथेली आगे करके वो ही घिसा पिटा सा बहाना मार दिया कि कलम की निब टूट गई है।मास्साब ने बिना विलम्ब किए, ताक़त से छड़ी की झड़ी लगाते हुए सबके सामने हमें मुर्गा बनने का फ़रमान जारी कर दिया।

घर लौटते समय हमने अपनी हथेलियाँ सहला सहला कर यह निष्कर्ष निकाला कि संसार में स्याही से भरी कलम सबसे ज़रूरी आयटम है।इसलिए हम उस दिन के बाद कलम ले जाना कभी नही भूले।स्कूल आते-जाते समय, सभी साथियों के हाथ में कलम इस प्रकार चमकती दिखाई पड़ती थे जैसे कोई बटालियन तलवार लिए क़िला फ़तह करने जा रही हो।

उस काल के,कलम और स्याही से सम्बंधित कई रोमांचक अनुभव आज भी हमारे दिमाग़ में चस्पा किए हुए हैं। जैसे बिना ड्रॉपर के, कलम में स्याही डालने की कला।कलम में स्याही इस प्रकार भरी जाए कि कलम का टैंक बिना बूँद गिरे फुल्ल हो जाए।इस कला में पारंगत विरले ही होते थे और हमें गर्व है कि हम उनमे से एक थे। अलबत्ता अंगुलियाँ ज़रूर स्याही से रंग जाती थी। रंगी अंगुलियों को दीवार पर पोछने का भी अपना एक अलेदा आनंद था। बस सतर्कता ज़रूर बरतनी पड़ती थी कि कहीं कोई देख ना ले।आगे बैठे हुए छात्र की क़मीज़ पर स्याही छिड़कने से पहले हमें आशा ही नही पूर्ण विश्वास होता था कि यह मास्साब से ज़रूर चुग़ली करेगा फिर भी हमेशा, छड़ी पिटाई पर मनोरंजन भारी पड़ता रहा इसलिए हम साथियों की क़मीज़ों पर कलम से स्याही छिड़कते रहे और अपनी हथेलीयां, छड़ी की पदचापों के लिए मास्साब को समर्पित करते रहे।घर पहुँच कर अम्मा भी स्याही से रंगे हाथो पर पानी डालते समय शब्द बाणों का इस्तेमाल करना कभी नही भूलती थीं। बीच बीच में वो विलंबित लय में हमारे सर पर तबला भी बजाती रहती थीं।

हमें आज भी याद है कि कैसे वीर योद्धा की तरह हर परिस्थितियों में हम अपने पैर जमाए रखते थे। छड़ी और दर्द की जुगलबंदी, साथी की चुग़ली करने की बुरी आदत,अम्मा के स्नेह वचन और शृंगार से ओतप्रोत दीवारें हमेशा हमें हमेशा डटे रहने की प्रेरणा देती थीं।आख़िर मानसिक शांति भी तो कोई चीज़ होती है।आज एक योद्धा के बारे में जब यह ख़बर पढ़ी कि किस बेबाक़ी और निडरता से उसने किसी आदरणीय को स्याही से रंग दिया है तो हमें हमारे बचपन के दिन याद आ गए और फ़्लेश बैक की सैर करने निकल पड़े और सकुशल लौट भी आए।हमें लगता है कि स्याही छिड़कने की प्रथा सदियों से चली आ रही है बस समय के अनुसार लक्ष्य बदलते रहते हैं।

हम इन स्याही फेंकू योद्धाओं को इसलिए भी धन्यवाद देना चाहते हैं क्यों कि आज जब स्याही का प्रयोग लगभग अंतर्ध्यान हो गया है, ये मुट्ठी भर योद्धा, स्याही की अस्मिता बचाने लिए संघर्ष कर हैं।अख़बार की इस घटना को पढ़ने के बाद आज इस बात के भी पुख़्ता प्रमाण मिल गए है कि स्याही योद्धा का वो अहिंसक शस्त्र है जो युगों युगों से इस्तेमाल होता आ रहा है और युगों तक इसका इस्तेमाल होता रहेगा।

 

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2 Thoughts to “योद्धा की स्याही : व्यंग्य”

  1. Gun Nidhi

    सुंदर लेखन।

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  2. Vikas Kapur

    प्रिय मित्र
    ये वयंग्य मुझे बहुत अच्छा लगा। बहुत मजा आया। इसे पड़ कर मुझे अपना बचपन भी याद आ गया।
    शुभ कामनाएं
    विकास कपूर

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